OTT platform पर जब भी ग्रामीण भारत की बात होती है, तो ‘पंचायत’ जैसा कंटेंट देखने की उम्मीद ख़ुद ब ख़ुद बन जाती है। लेकिन इसी लाइन में आई टीवीएफ की नई सीरीज Graam Chikitsaalay कहीं न कहीं एक अधूरा वादा जैसी लगती है। ‘पंचायत’ जैसी हिट सीरीज से निकली इस नई कोशिश ने दर्शकों की उम्मीदें जगाईं है , लेकिन क्या ये सीरीज उन उम्मीदों पर खरी उतर पाई? आइए जानते हैं इस विस्तार से।

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भटकंडी: एक नया फुलेरा
झारखंड की सुंदर वादियों में बसा गांव ‘भटकंडी’, ‘पंचायत’ के फुलेरा जैसा ही एक काल्पनिक गांव है, जहां की समस्याएं और परिस्थितियां ग्रामीण भारत की असल झलक दिखती हैं। कहानी शुरू होती है डॉ. प्रभात सिन्हा से, जो शहर में डॉक्टर बनने के बाद अपने पिता के निजी अस्पताल को छोड़कर एक सरकारी पीएचसी (प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र) में नौकरी करता है। गांव में उसका सामना होता है चेतक कुमार जैसे झोलाछाप डॉक्टर से, जो गूगल पर लक्षण ढूंढकर इलाज करता है और गांव वालों में खासा लोकप्रिय भी है। यहीं से कहानी में संघर्ष शुरू होता है – एक पढ़ा-लिखा डॉक्टर और एक अनुभवधारी झोलाछाप की लोकप्रियता की टकराहट।
अमोल पाराशर: एक कमजोर अभिनय
डॉ. प्रभात की भूमिका में अमोल पाराशर को कास्ट किया गया, लेकिन यह चुनाव खुद एक गलत दवाई जैसा लगता है। अमोल के अभिनय में ना तो डॉक्टर का अनुभव दिखता है, और ना ही गांव में काम करने वाला मृदुभाषी युवक। न संवादों में वजन है, न भावों में असर। कई बार तो ऐसा लगता है कि जैसे किरदार और कलाकार दोनों ही अलग-अलग राहों पर चल रहे हैं। और विनय पाठक ने चेतक कुमार का किरदार जमकर निभाया है – उनके संवाद और अंदाज में ह्यूमर भी है और कटाक्ष भी। लेकिन क्या ये काफी है पूरी सीरीज को संभालने के लिए?

Graam Chikitsaalay रिसर्च की कमी?
‘Graam Chikitsaalay’ की सबसे बड़ी कमजोरी यह है – कि सीरीज किसी ठोस विचार या रिसर्च पर आधारित नहीं लगती। अगर रिसर्च होती, तो कहानी वहां से शुरू होती जहां असली डॉक्टर गांव जाना ही नहीं चाहते। जहां पीएचसी की हालत जर्जर है जहाँ दवा-पानी के नाम पर राजनीति है। लेकिन यहां सिर्फ एक झोलाछाप बनाम असली डॉक्टर की सतही लड़ाई दिखाई गई है। न तो चिकित्सा व्यवस्था की जमीनी सच्चाइयों को गहराई से दिखाया गया है, और न ही गांव वालों की मानसिकता की पड़ताल की गई है।
तकनीकी पक्ष: कैमरा चमका
श्रृंखला की सिनेमैटोग्राफी तारीफ के काबिल है। झारखंड के प्राकृतिक दृश्य इतने खूबसूरत ढंग से फिल्माए गए हैं कि कुछ फ्रेम तो ‘शोले’ की याद दिला दे। गिरीश कांत का कैमरा गांव का एक अनोखे सौंदर्य कैद करता है। लेकिन जब बात एडिटिंग की आती है, तो कई एपिसोड्स अनावश्यक रूप से लंबे लगते हैं। निर्देशक राहुल पांडे ने सीरीज को दिल से गढ़ा है, लेकिन इसकी लंबाई और धीमी गति दर्शकों की रूचि को कमजोर कर देती है। वहीं संगीत में वो लोकभाव नहीं है, जिसकी उम्मीद ‘ग्राम’ आधारित सीरीज से की जाती है। नीलोत्पल बोरा का संगीत कहीं-कहीं असर करता है, लेकिन अधिकांशत: पृष्ठभूमि में ही खो जाता है।
पंचायत से तुलना: क्या है अलग, क्या है दोहराव?
‘पंचायत’ और Graam Chikitsaalay दोनों में ग्रामीण भारत की कहानी है, लेकिन Graam Chikitsaalay का व्यंग्य अधिक तीखा है। यह सीरीज झोलाछाप डॉक्टरों की हकीकत को उजागर करती है, जबकि ‘पंचायत’ में गांव के सिस्टम की लाचारियों पर हंसी आती है। ‘ग्राम चिकित्सालय’ में भी कॉमिक एलिमेंट्स हैं, लेकिन वे पंचायत जैसी सहजता के साथ नहीं आते। संवादों में धार है, लेकिन किरदारों में गहराई नहीं।
Graam Chikitsaalay देखें या छोड़ें?
अगर आपने ‘पंचायत’ देखी है और उससे बेहतर या वैसी ही सीरीज की उम्मीद कर रहे हैं, तो Graam Chikitsaalay आपको थोड़ी निराश कर सकती है। लेकिन अगर आप गांवों की चिकित्सा व्यवस्था पर आधारित एक हल्की-फुल्की, व्यंग्यात्मक सीरीज देखना चाहते हैं, तो एक बार देखी जा सकती है। खासकर विनय पाठक का अभिनय, ग्रामीण दृश्यों की सुंदरता और कुछ एपिसोड्स के सटीक व्यंग्य इसे देखने लायक बनाते हैं।
रेटिंग: 2.5/5 – मनोरंजन की कोशिश, पर असर अधूरा