Manoj Bajpayee, Nawazuddin Siddiqui और Jaideep Ahlawat की बेबाक Roundtable Interview

Manoj Bajpayee, Nawazuddin Siddiqui & Jaideep Ahlawat

Manoj Bajpayee, Nawazuddin Siddiqui और Jaideep Ahlawat एक दशक से भी अधिक समय बाद फ़िल्मफ़ेयर एक्टर्स राउंडटेबल में पुनः मिले। यह पुनर्मिलन मशहूर फ़िल्म गैंग्स ऑफ़ वासेपुर (2012) के रिलीज़ के कई सालों बाद हुआ, जिसने भारतीय सिनेमा में एक पीढ़ी को प्रभावित करने वाला सिनेमा दिया था। फ़िल्मफ़ेयर के प्रधान संपादक जितेश पिल्लै द्वारा संचालित इस विशेष एपिसोड में तीनों कलाकारों ने थिएटर, सिनेमा, अपनी फ़िल्मी यात्रा, और इंडस्ट्री के अनुभवों पर खुलकर चर्चा की। बातचीत का स्वरूप बिलकुल बेबाक और निसंकोच रहा – इन दिग्गज कलाकारों ने अपनी व्यक्तिगत कहानियाँ, विचार और भावनाएँ बिना झिझक साझा कीं, जिससे कई अनसुने पहलू उजागर हुए।

वीडियो का विषय एवं उद्देश्य

इस राउंडटेबल चर्चा का मूल विषय कलाकारों की कलात्मक यात्रा और दृष्टिकोण है। तीनों अभिनेताओं ने मिलकर अपने-अपने अनुभवों के जरिये थिएटर बनाम सिनेमा, अभिनय की प्रक्रिया, सह-अभिनेताओं के साथ काम करने के तरीके, तथा फ़िल्म इंडस्ट्री में मिलने वाले सराहना या उसकी कमी जैसे विषयों पर प्रकाश डाला । वीडियो का उद्देश्य न केवल इन कलाकारों के करियर से जुड़ी यादों को ताज़ा करना था, बल्कि उनके कला के प्रति समर्पण और दृष्टिकोण को गहराई से समझना भी था। इस बातचीत में दर्शकों को उन चुनौतियों, पछतावों और सीखों की झलक मिलती है जो इन कलाकारों ने अपने सफ़र में अनुभव की हैं। साथ ही, यह चर्चा उद्योग में प्रचलित मान्यताओं – जैसे सितारा बनाम अभिनेता का फर्क, या साथियों द्वारा एक-दूसरे के काम की सराहना – पर सवाल उठाती है, जिसका मकसद फिल्म जगत की कार्यसंस्कृति को बेहतर तरीके से समझना है।

मुख्य चर्चा बिंदु और प्रमुख तर्क

इस राउंडटेबल में कई अहम पहलुओं पर बात की गई। प्रस्तुतकर्ता (तीनों अभिनेता) ने अपने अनुभवों के आधार पर तर्क दिए और उदाहरण साझा किए, जिन्हें नीचे विभिन्न उप-शीर्षकों के अंतर्गत सारांशित किया गया है:

समानता, गुस्सा और पदानुक्रम पर Manoj Bajpayee के विचार

Manoj Bajpayee ने अपने प्रारंभिक करियर के दौर में महसूस की गई नाराज़गी और उसके कारणों पर ईमानदारी से बात की। उन्होंने बताया कि उनके गुस्से की जड़ जीवन में “न्याय” (Fairness) की भावना से जुड़ी थी। मनोज के अनुसार, किसी व्यक्ति का मूल्यांकन जाति-धर्म या लिंग के आधार पर नहीं, बल्कि उसकी गुणवत्ता, प्रतिभा, क्षमता और कड़ी मेहनत के आधार पर होना चाहिए। यदि किसी कम योग्य व्यक्ति को महज़ अपनी पहुंच या ताकत के बल पर ज़्यादा मौका मिलता है, तो यह अन्य मेहनती लोगों के साथ अन्याय होता है – यही बात उन्हें अंदर से कचोटती थी। वे कहते हैं कि जब कोई व्यक्ति किसी पावर (सत्ता या रुतबे) के दम पर सब कुछ हासिल कर रहा हो और दिखावे के तौर पर दूसरों पर हुक्म चलाए, तो मनोज को यह स्वीकार्य नहीं होता। अपने आसपास ऐसे अनुचित पदानुक्रम (हाइरार्की) से निपटने के लिए मनोज ने ठान लिया कि वे अपने कार्यक्षेत्र या निजी जीवन में शक्ति के इस तरह के असंतुलन को पनपने नहीं देंगे। वह बताते हैं कि उन्होंने अपने दायरे में बदलाव लाकर इस ऊँच-नीच की भावना को खत्म करने का प्रयास किया, ताकि सभी को बराबरी का सम्मान मिल सके।

Manoj Bajpayee, Nawazuddin Siddiqui और Jaideep Ahlawat

रचनात्मकता, पछतावा और Nawazuddin Siddiquiके सबक

Nawazuddin Siddiquiने बेहद खुले अंदाज़ में अपने करियर से जुड़े एक पछतावे का ज़िक्र किया। उन्होंने स्वीकार किया कि अपने जीवन के 3-4 वर्ष उन्होंने ऐसे माहौल या लोगों के बीच गुज़ारे जहाँ रचनात्मकता की कमी थी। नवाज़ कहते हैं, मुझे अब भी अफ़सोस है कि जिंदगी के वे तीन-चार साल मैंने गैर-क्रिएटिव लोगों के साथ बिताए। इससे वर्षों का नुक़सान हो गया।” इस ईमानदार स्वीकारोक्ति के बाद उन्होंने बताया कि अब वे सतर्क रहते हैं कि किन लोगों की संगत में वक़्त बिताना है। उनका मानना है कि सृजनात्मक (क्रिएटिव) लोगों के साथ दोस्ती और मेलजोल रखने से इंसान के अंदर की कोर सोच और अवचेतन मन का विकास होता है, जो अंततः रचनात्मकता को बढ़ावा देता है। नवाज़ुद्दीन ने यह अहम सबक सीखा है कि जिस परिवार या मित्र मंडली में हम समय बिताते हैं, उसका हमारी रचनात्मक वृद्धि पर गहरा असर पड़ता है – इसलिए उन्होंने अब तय किया है कि वे सृजनात्मक वातावरण में ही खुद को रखें, जिससे उनके अंदर निरंतर विकास होता रहे।

अभिनेता बनाम स्टार: मनोज का नज़रिया

चर्चा के दौरान Manoj Bajpayee ने स्टार” और “एक्टर” के बीच के फर्क पर भी रोशनी डाली। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि एक वास्तविक अभिनेता और एक फिल्मी सितारे की मनोस्थिति में बुनियादी अंतर होता है। मनोज के अनुसार, अभिनेता खुद से थोड़ा अलग होकर भी खुद को जाँचते-परखते हैं। वे अपने भावों और कमियों को ईमानदारी से देखते हैं, जितना कोई और नहीं देख पाता।” एक सच्चा अभिनेता अपने काम को लेकर आत्मालोचन (self-critical) और आत्म-परीक्षण करता है, जबकि दूसरी तरफ एक स्टार अक्सर खुद की छवि में इतना खोया रहता है कि वह कुछ हद तक आत्ममुग्धता (narcissism) का शिकार हो जाता है। मनोज ने तर्क दिया कि सितारों का फोकस अक्सर अपनी प्रसिद्धि और छवि पर हो जाता है, जबकि अभिनेताओं का ध्यान भावनाओं की सच्चाई और उन कारकों पर होता है जो उनके प्रदर्शन को आकार दे रहे हैं। इस अंतर्दृष्टि से यह स्पष्ट होता है कि बड़े अभिनेता अपने इगो पर कला को तरजीह देते हैं, तभी वे अपने आप को निरंतर निखार पाते हैं।

अभिनय की गहराई और दर्शकों की समझ

Nawazuddin Siddiquiने एक बिंदु पर इस बात पर अफसोस जताया कि अक्सर आम दर्शक अभिनय की गहराई को पूरी तरह नहीं समझ पाते। उन्होंने कहा कि केवल वही लोग अभिनय के सूक्ष्म पलों को पकड़ सकते हैं जिन्हें अभिनय की गहरी समझ है।” नवाज़ुद्दीन के अनुसार, एक कलाकार जो चरित्र को जीते-जीते किसी क्षण पूर्ण प्रामाणिकता (truth of the actor) तक पहुँच जाता है, उस सच्चाई को पहचानना हर किसी के बस की बात नहीं। उन्होंने उदाहरण दिया कि कई बार वे खुद अभिनय करते हुए उस मनःस्थिति तक पहुँच चुके हैं जहाँ “Acting is believing”, अर्थात अभिनेता पूरी तरह विश्वास के साथ चरित्र में डूब जाता है। लेकिन दुर्भाग्य से ऐसे क्षणों को बहुत से दर्शक पहचान नहीं पाते या मिस कर देते हैं। नवाज़ का मानना है कि अगर दर्शक अभिनय की प्रक्रिया और मेहनत के प्रति ज़्यादा जागरूक हों, तो वे उन ख़ास लम्हों की कद्र कर पाएंगे जब एक अभिनेता अपनी चरम कला प्रस्तुत कर रहा होता है। यह टिप्पणी दर्शाती है कि एक उम्दा अभिनेता के प्रदर्शन के परदे के पीछे कितनी व्यक्तिगत मेहनत और सच्चाई छिपी होती है, जो अक्सर अनदेखी रह जाती है।

थिएटर बनाम सिनेमा: अनुशासन और प्रक्रिया का फर्क

Manoj Bajpayee ने अपने तीन दशक से भी लंबे करियर के तजुर्बे से थिएटर और सिनेमा के अंतर पर गहन विचार साझा किए। उन्होंने कहा कि रंगमंच (थिएटर)actor अभिनेता को कड़ा अनुशासन और एक ठोस प्रक्रिया प्रदान करता है, जबकि सिनेमा माध्यम में यह अनुशासन कई बार टूट जाता है। मनोज के शब्दों में, थिएटर तुम्हें अनुशासन देता है, प्रक्रिया सिखाता है। 32 साल बाद मैं मानता हूँ कि सिनेमा_actor_ अभिनेता का माध्यम नहीं है। सिनेमा तुम्हारे अनुशासन को छीन लेता है।”

उनका तात्पर्य था कि फ़िल्म इंडस्ट्री में काम करते हुए वातावरण इतना गतिशील और कभी-कभी अव्यवस्थित होता है कि अभिनेता के पास थिएटर जैसी नियमितता से अभ्यास करने का मौका नहीं मिलता। उन्होंने यह भी कहा कि फिल्म निर्माण की प्रकृति ऐसी है कि वहाँ प्रक्रिया के लिए लोगों में उतना धैर्य नहीं होता। सिनेमा सेट पर बहुत सारे व्यवधान (distractions) होते हैं – टेक्निकल सेट-अप, लाइट, कैमरा, प्रोडक्शन की जल्दबाज़ी – जिनके कारण एक_actor_ अभिनेता के लिए लगातार अपने किरदार की प्रक्रिया में डूबे रहना चुनौती बन जाता है। इसके विपरीत, थिएटर में नियमित रिहर्सल और एक अनुशासित माहौल_actor_ अभिनेता को अपने क्राफ्ट को सँवारने का अवसर देते हैं। इस तुलना से मनोज यह निष्कर्ष निकालते हैं कि सिनेमा में टिके रहने और उत्कृष्ट अभिनय करने के लिए थिएटर से मिले सबक और अनुशासन को अपने भीतर संभाल कर रखना आवश्यक है।

फिल्मी प्रेरणाएँ और Jaideep Ahlawat पर प्रभाव

चर्चा के दौरान Jaideep Ahlawat ने उन फ़िल्मकारों और फ़िल्मों का ज़िक्र किया जिनसे उन्हें प्रेरणा मिली और जिन्होंने उनके रचनात्मक सफ़र को आकार दिया। जैदीप ने बताया कि अभिनय की दुनिया में प्रवेश करने की प्रेरणा उन्हें बचपन में देखी कुछ महान फ़िल्मों से मिली। सबसे पहली फ़िल्म जिसने उन्हें प्रभावित किया, वह थी गुरु दत्त साहब की क्लासिक प्यासा” (1957) । इसके अलावा वे मानते हैं कि ऋत्विक घटक और सत्यजीत रे जैसे दिग्गज निर्देशक, और आगे चलकर राम गोपाल वर्मा जैसे आधुनिक फिल्मकार की फिल्मों से भी उन्हें बहुत कुछ सीखने को मिला। जैदीप कहते हैं कि भारतीय सिनेमा के अलग-अलग दौर के महान storytellers (कथा-वाचन करने वाले निर्देशक) अपने अनूठे अंदाज़ में कहानी और चरित्र प्रस्तुत करते हैं, और इन विभिन्न शैलियों ने मिलकर उन्हें एक व्यापक दृष्टिकोण दिया। इन सभी ने उनकी कला को किसी न किसी तरह से समृद्ध किया है। जैदीप का यह कथन दर्शाता है कि एक अभिनेता के रूप में वे पुराने क्लासिक सिनेमा से लेकर समकालीन सिनेमा तक, हर अच्छे काम से सीखने और प्रभावित होने की क्षमता रखते हैं, जिससे उनके अभिनय में गहराई आई है।

इंडस्ट्री में सराहना की कमी और पारस्परिक सम्मान

तीनों कलाकारों ने बातचीत में फिल्म इंडस्ट्री में साथियों द्वारा एक-दूसरे के काम की सराहना ना किए जाने के चलन पर भी अपने विचार व्यक्त किए। अक्सर यह देखा जाता है कि बॉलीवुड में अभिनेता एक-दूसरे की खुलेआम प्रशंसा करने से बचते हैं, जिससे अच्छे काम को वो सम्मान नहीं मिल पाता जो मिलना चाहिए। इस मुद्दे पर चर्चा करते हुए इन्होंने माना कि परस्पर सराहना की कमी एक वास्तविकता है और इसे बदलने की ज़रूरत है। मनोज, नवाज़ और जैदीप तीनों ने सहमति जताई कि कलाकारों को अपने सहकर्मियों के उम्दा काम की तारीफ़ खुले मन से करनी चाहिए, क्योंकि इस तरह के सम्मानजनक माहौल से सभी को प्रोत्साहन मिलता है। दिलचस्प बात यह है कि स्वयं इस राउंडटेबल में इन अभिनेताओं ने एक-दूसरे के प्रति प्रशंसा व्यक्त करने में कोई हिचकिचाहट नहीं दिखाई।

उदाहरण के तौर पर, Manoj Bajpayee ने Nawazuddin Siddiqui के शुरुआती दौर की एक लघु फ़िल्म द बायपास (2003) में उनके अभिनय की विशेष सराहना की। अक्सर कम चर्चित लेकिन उत्कृष्ट कार्यों को उजागर करना साथी कलाकारों का कर्तव्य भी है – इस भावना के साथ मनोज ने नवाज़ की उस फ़िल्म का ज़िक्र किया। इसी तरह जैदीप और नवाज़ुद्दीन ने भी बातचीत के दौरान एक-दूसरे के सफल प्रदर्शनों की तारीफ़ की, जो इंडस्ट्री में बदलती सकारात्मक प्रवृत्ति का संकेत है। कुल मिलाकर, तीनों ने माना कि साथियों की प्रशंसा न मिलने से कलाकारों को जो हतोत्साह होता है, उसे दूर करने के लिए सबको आगे आना चाहिए, ताकि एक हेल्दी रचनात्मक माहौल बने।

यादगार किस्से: GOW, अनुराग कश्यप और इरफ़ान ख़ान

इस अनौपचारिक चर्चा में कई यादगार किस्से और व्यक्तिगत अनुभव भी साझा किए गए, जो इन कलाकारों के करियर के अहम मोड़ों से जुड़े हैं। Manoj Bajpayee ने गैंग्स ऑफ़ वासेपुर (GOW) से जुड़ा एक रोचक प्रसंग बताया। उन्होंने खुलासा किया कि निर्देशक अनुराग कश्यप शुरू में उन्हें इस फिल्म में कास्ट करने को लेकर आशंकित थे। अनुराग को डर था कि Manoj Bajpayee अपने पुराने आइकॉनिक किरदार भीकू म्हात्रे (सत्या, 1998) की छवि को पार कर पाएंगे या नहीं। मनोज के अनुसार, अनुराग की यह दुविधा वाजिब थी क्योंकि सत्या में उनके दमदार प्रदर्शन के बाद उन्हें खुद को एक नए स्तर पर साबित करना था। बाद में जब मनोज को GOW में लिया गया, तो उन्होंने अपने अभिनय से साबित कर दिया कि वे विविध किरदारों में ढल सकते हैं। इस प्रसंग से मनोज ने यह निष्कर्ष भी साझा किया कि एक अभिनेता के लिए निर्देशक से मिलने वाला विश्‍वास एवं मान्यता (validation) बहुत मायने रखता है। अच्छे निर्देशक अभिनेता के सफ़र को बारीकी से देखते हैं और उनके प्रदर्शन को नई दृष्टि दे सकते हैं – अनुराग से मिले भरोसे ने मनोज को और बेहतर करने की प्रेरणा दी।

इसी क्रम में मनोज ने फ़िल्म इंडस्ट्री के एक और क़िस्से का ज़िक्र किया, जिसमें उनकी तमन्ना विशाल भारद्वाज की फ़िल्म मक़बूल (2004) का हिस्सा बनने की थी। मक़बूल में आख़िरकार किरदार दिवंगत इरफ़ान ख़ान ने निभाया, जो मनोज के अच्छे मित्र भी थे। मनोज ने साझा किया कि इरफ़ान और उनकी जान-पहचान उनके थिएटर के दिनों से थी। इरफ़ान ख़ान शुरुआती दिनों में मनोज के नाटकों को देखने जाया करते थे और दोनों अक्सर चाय पर मुलाकात करते थे। हालांकि उस समय उनके दोस्तों के सर्कल अलग-अलग थे, लेकिन दोनों एक-दूसरे के काम की इज़्ज़त करते थे। मनोज ने याद करते हुए बताया कि एक बार किसी इंटरव्यूअर ने उनसे और इरफ़ान से संयुक्त बातचीत की थी, जहाँ इरफ़ान ने यह कहा था कि वह हमेशा चाहते थे कि उनके और मनोज के साथ एक फ़िल्म में काम करने का मौका मिले। इस व्यक्तिगत स्मृति को साझा करते हुए मनोज की आवाज़ में दोस्ती और सम्मान का भाव झलका। यह किस्सा दर्शाता है कि दो महान अभिनेता एक-दूसरे के हुनर के कितने क़द्रदान थे और अफ़सोस कि इरफ़ान के असमय निधन के कारण उनका साथ काम करने का सपना अधूरा रह गया।

प्रमुख निष्कर्ष और उनका महत्व

इस राउंडटेबल चर्चा से कई महत्वपूर्ण निष्कर्ष उभरकर आते हैं:

  • अनुशासन एवं समानता का मूल्य: Manoj Bajpayee ने अपने अनुभवों से यह दिखाया कि कला की दुनिया में योग्यता और ईमानदारी का स्थान सबसे ऊपर है। उन्होंने जिस तरह अपने आसपास के माहौल से अनुचित पदानुक्रम को दूर रखने का संकल्प लिया, वह संकेत देता है कि फिल्म उद्योग को प्रतिभा और मेहनत के आधार पर अधिक न्यायपूर्ण बनना चाहिए।
  • सही संगत और निरंतर विकास: Nawazuddin Siddiquiके पश्चाताप भरे सबक से यह सीख मिलती है कि एक कलाकार के लिए सही माहौल और संगति का चुनना बेहद ज़रूरी है। रचनात्मक लोगों के बीच रहने से एक कलाकार अपनी कला को नए आयाम दे सकता है, जबकि गलत संगति वर्षों पीछे धकेल सकती है। यह किसी भी क्षेत्र में व्यक्ति के विकास के लिए महत्वपूर्ण संदेश है।
  • कलाकार की आत्मचेतना: मनोज द्वारा बताए गए स्टार बनाम अभिनेता के अंतर ने स्पष्ट किया कि महान अभिनेता खुद का सबसे बड़ा समीक्षक होता है। अपनी कमियों और क्षमताओं का ईमानदार मूल्यांकन ही उसे बेहतर बनाता है, जबकि आत्ममुग्धता कलाकार को रोक देती है। यह निष्कर्ष सिर्फ फ़िल्म ही नहीं, जीवन के हर क्षेत्र में आत्म-विकास के लिए प्रासंगिक है।
  • दर्शकों की भागीदारी: नवाज़ुद्दीन ने जिस तरह दर्शकों की अभिनय के प्रति समझ बढ़ाने की बात की, वह कला के सराहक समुदाय के विकास हेतु अहम है। “Acting is believing” जैसे विचार बताते हैं कि दर्शकों को भी अभिनय की प्रक्रिया को समझने की कोशिश करनी चाहिए, ताकि वे कलाकार के प्रदर्शन की सूक्ष्मताओं की कद्र कर सकें। इससे सिनेमा और थिएटर, दोनों ही माध्यमों में कला का स्तर ऊंचा उठेगा और कलाकारों को भी संतुष्टि मिलेगी।
  • थिएटर का महत्व: चर्चा में बार-बार थिएटर प्रशिक्षण और पृष्ठभूमि की महत्ता पर जोर दिया गया। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि आज के फिल्म अभिनेताओं के लिए थिएटर की सीख एक मजबूत नींव का काम करती है। थिएटर से मिले अनुशासन, समर्पण और टीमवर्क की भावना फिल्म सेट पर भी कलाकारों को उत्कृष्ट प्रदर्शन करने में सहायक होती है। आगामी पीढ़ी के अभिनेताओं के लिए यह एक मार्गदर्शन है कि रंगमंच से जुड़ाव उनकी कला को निखार सकता है।
  • परस्पर सम्मान व सहयोग: इंडस्ट्री में सहकर्मियों द्वारा सराहना की कमी पर चर्चा ने यह दिखाया कि आपसी सम्मान कलाकारों का मनोबल बढ़ाने में कितना बड़ा कारक है। यदि कलाकार एक-दूसरे की प्रशंसा खुले तौर पर करेंगे, तो न सिर्फ़ व्यक्तिगत संबंध बेहतर होंगे बल्कि पूरी इंडस्ट्री में सकारात्मक माहौल बनेगा। इस बातचीत से यह महत्वपूर्ण संदेश मिलता है कि प्रतिस्पर्धा के साथ-साथ सहयोग और सराहना को जगह देना ज़रूरी है।
  • व्यक्तिगत संबंधों की गरिमा: इरफ़ान ख़ान के साथ मनोज के स्मरण जैसे किस्से दर्शाते हैं कि फ़िल्म जगत के दायरे से बाहर भी कलाकारों के बीच गहरी इंसानी दोस्तियाँ और सम्मान होते हैं। यह फ़िल्म उद्योग के मानवीय पहलू को उजागर करता है और याद दिलाता है कि कला के क्षेत्र में काम करते हुए संबंध और सद्भावना कितनी मायने रखती हैं।

इन बिंदुओं का महत्त्व सिर्फ इन तीन अभिनेताओं की कहानी तक सीमित नहीं है, बल्कि व्यापक रूप से फ़िल्म उद्योग और दर्शकों के लिए भी मूल्यवान है। यह चर्चा आने वाले कलाकारों और सिने-प्रेमियों को प्रेरणा देती है कि मेहनत, लगन, ईमानदारी और आपसी सम्मान के साथ आगे बढ़ें। साथ ही, स्थापित कलाकारों की ये ईमानदार बातें इंडस्ट्री में सकारात्मक परिवर्तन लाने में सहायक हो सकती हैं – चाहे वह नए कलाकारों को थिएटर की ओर प्रोत्साहित करना हो, या सहकर्मियों की प्रशंसा करने की संस्कृति विकसित करना हो।

रोचक तथ्य, उद्धरण एवं विचार

इस वीडियो चर्चा को कुछ ख़ास बातें और उद्धरण स्मरणीय बनाते हैं:

  • अनुराग कश्यप की प्रारंभिक झिझक: Manoj Bajpayee ने बताया कि निर्देशक अनुराग कश्यप को पहले संदेह था कि मनोज गैंग्स ऑफ़ वासेपुर में अपनी पिछली भूमिका (भीकू म्हात्रे, सत्या) से बेहतर कर पाएंगे या नहीं लेकिन अंततः मनोज ने अपने प्रदर्शन से सबको गलत साबित किया।
  • नवाज़ुद्दीन का पश्चाताप: Nawazuddin Siddiquiने ईमानदारी से स्वीकारा कि उन्होंने 3-4 साल ऐसे लोगों के बीच गंवाए जहाँ सृजनात्मकता नहीं थी, और माना कि यह समय व्यर्थ गया। इस स्वीकारोक्ति ने दर्शाया कि खुद अपनी गलतियों से सीख लेना कितनी बड़ी बात है।
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