अनुराग बासु एक बार फिर आधुनिक शहरी जीवन की कहानियाँ बड़े परदे पर लेकर आए हैं। उनकी नई फिल्म Metro In Dino आज सिनेमाघरों में रिलीज़ हो चुकी है। यह 2007 की मशहूर फिल्म ‘Life in a… Metro’ का आत्मिक सीक्वल मानी जा रही है, जिसमें प्यार और रिश्तों की छोटी-बड़ी कहानियाँ महानगर की भागदौड़ भरी ज़िंदगी में पनपती थीं। करीब 2 घंटे 42 मिनट लंबी इस रोमांटिक-ड्रामा में भी अनुराग ने वैसी ही कई भावुक कहानियाँ पिरोई हैं, लेकिन नए दौर की संवेदनाओं के साथ। फिल्म में आदित्य रॉय कपूर, सारा अली खान, पंकज त्रिपाठी, कोंकणा सेन शर्मा, नीना गुप्ता, और अनुपम खेर जैसे दिग्गज समेत एक बड़ी स्टारकास्ट है जो अलग-अलग उम्र और पृष्ठभूमि के किरदार निभा रहे हैं। हाल ही में आए ऑफिशियल ट्रेलर ने इशारा दिया था कि यह फिल्म प्यार, दिल टूटने और उम्मीदों की नई कहानियाँ दिखाने वाली है। क्या वाकई ‘मेट्रो… इन दिनों’ उसी भावनात्मक जुड़ाव को दोहरा पाती है? आइए, दोस्ताना अंदाज़ में गपशप करते हुए जानें इस फिल्म के बारे में।
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Metro In Dino कहानी और निर्देशन (Story & Direction)
महानगर की तेज रफ़्तार जिंदगी में पनपते रिश्तों की झलक फिल्म के एक दृश्य में।
फ़िल्म की कहानी चार अलग-अलग जोड़ियों के इर्दगिर्द घूमती है, जिनकी कहानियाँ देश के चार मेट्रो शहरों – मुंबई, दिल्ली, कोलकाता और बैंगलोर – में सेट की गई हैं । हर कहानी में प्यार और रिश्तों का एक अलग रंग है: युवा पीढ़ी की उलझने, मध्यम आयु के दम्पतियों के उतार-चढ़ाव, और उम्रदराज़ साथी जो ज़िंदगी की सांझ में नए मायने खोज रहे हैं। दिलचस्प बात यह है कि ये चारों किस्से फिल्म में कहीं न कहीं एक-दूसरे से टकराते हैं, जैसे व्यस्त मेट्रो स्टेशन पर अलग-अलग ट्रेनें कभी राह क्रॉस करती हैं।
अनुराग बासु ने बतौर निर्देशक इन कहानियों को बड़ी संजीदगी से बुना है। क्या ‘मेट्रो… इन दिनों’ 18 साल बाद भी वैसा ही जादू जगा पाती है जैसा ओरिजिनल फिल्म ने जगाया था? जवाब काफी हद तक हाँ में है। बासु ने आधुनिक दौर के प्रासंगिक विषय – जैसे कार्यस्थल पर महिलाओं के साथ व्यवहार (#MeToo आंदोलन का संदर्भ), LGBTQIA+ समुदाय की स्वीकरण की कहानी, विवाह में विश्वास और कमिटमेंट का संकट, करियर बनाम रिश्तों की दुविधा, यहाँ तक कि गर्भपात पर चर्चा – बड़े ही सहज तरीके से इन कहानियों में पिरोए हैं । खुशी की बात यह है कि ये सामाजिक मुद्दे फिल्म में सिर्फ दिखावे के लिए टिक-मार्क की तरह नहीं डाले गए, बल्कि कहानी का अंग बनकर आते हैं। अनुराग बासु ने पिछली फिल्म में जो भी कसर छोड़ी थी, इस बार उन पहलुओं को पूरा करने की कोशिश की है। उदाहरण के लिए, पिछली ‘लाइफ़ इन अ… मेट्रो’ में कुछ महिला किरदार उतने मजबूत नहीं थे, लेकिन इस बार हर कहानी में महिला पात्र केंद्र में हैं। वे खुलकर बोलती हैं, अपने जीवन के फैसले खुद लेती हैं, और रिश्तों में समझौता कम ही करती हैं । उन्हें जब लगता है कि रिश्ता खिंच नहीं रहा, तो वे आवाज़ उठाती हैं, अपना पक्ष रखती हैं। यह बदलाव आज के दौर के हिसाब से कहानी को और प्रासंगिक बना देता है।
निर्देशन की शैली की बात करें तो ‘मेट्रो… इन दिनों’ में अनुराग बासु ने फिर से मल्टी-नैरेटिव (हाइपरलिंक) फ़ॉर्मैट अपनाया है – यानी कई कहानियाँ साथ-साथ चलना और कहीं न कहीं आकर जुड़ना। यह फ़ॉर्मैट थोड़ा पेचीदा ज़रूर है, लेकिन बासु जैसे अनुभवी निर्देशक ने अपने कौशल से ज्यादातर जगह इस ढंग को कामयाब किया है । चारों कहानियों में भावनात्मक तार जुड़े हुए हैं, और ये आपस में ऐसे गूंथी गई हैं कि कुल मिलाकर एक व्यापक संदेश उभरकर आता है। खासकर दो कहानियाँ – एक मध्यम आयु के दम्पति (जिसमें कोंकणा सेन शर्मा और पंकज त्रिपाठी हैं) और दूसरी उम्रदराज़ पात्रों (जिसमें अनुपम खेर और नीना गुप्ता हैं) – बेहद संवेदनशील और दिल को छू लेने वाली बन पड़ी हैं। इनमें प्यार को दूसरा मौका देने, विश्वास और संगति की बातें इतनी ख़ूबसूरती से दिखाई गई हैं कि आप मुस्कुराए बिना नहीं रह पाते। दूसरी ओर, युवा किरदारों की कहानियाँ आज के जमाने की महत्वाकांक्षाओं और उलझनों को दिखाती हैं – मसलन करियर बनाम रिलेशनशिप का टकराव, लॉन्ग-डिस्टेंस मैरिज की चुनौती आदि। कुल मिलाकर, अनुराग बासु का निर्देशन ईमानदार है – वह आधुनिक शहरों में रिश्तों की पेचीदगियों को फिल्मी नाटकियता के साथ लेकिन सच्चाई से प्रस्तुत करते हैं। यही कारण है कि यह फिल्म एक प्रासंगिक और समय के हिसाब से सटीक सीक्वल महसूस होती है, भले ही यह ओरिजिनल जितनी परफेक्ट ना भी हो ।
गौरतलब है कि ‘मेट्रो… इन दिनों’ को लेकर प्रशंसकों में खास उत्सुकता थी, क्योंकि 2007 की फिल्म के दो सबसे यादगार हिस्से – दिवंगत अभिनेता इरफ़ान खान और गायक के.के. – अब हमारे बीच नहीं हैं। निर्देशक बासु ने खुद साझा किया है कि इस सीक्वल का आइडिया उन्हें इरफ़ान खान ने ही दिया था; इरफ़ान चाहते थे कि “Metro 2 बनाते हैं” । दुख की बात है कि 2020 में इरफ़ान के असमय निधन के कारण वो इस प्रोजेक्ट का हिस्सा नहीं बन पाए। बासु ने यह भी कहा कि पूरी फिल्म और इसका संगीत एल्बम उन्होंने इरफ़ान और के.के. को श्रद्धांजलि के तौर पर समर्पित किया है । वास्तव में फिल्म देखते वक्त आपको उनकी कमी महसूस होगी – इरफ़ान की बेजोड़ अदायगी और के.के. की मखमली आवाज़ की याद आना स्वाभाविक है। लेकिन यह जानकर दिल को सुकून भी मिलता है कि ‘मेट्रो… इन दिनों’ कहीं न कहीं उन दोनों महान कलाकारों की यादों को सहेजने की कोशिश है।
Metro In Dino अभिनय और किरदार
इस फिल्म की स्टारकास्ट काफी बड़ी है और हर कलाकार अपनी छाप छोड़ जाता है। पंकज त्रिपाठी और कोंकणा सेन शर्मा की जोड़ी ने एक अधेड़ दम्पति के रूप में कमाल का प्रदर्शन किया है – उनका ट्रैक कभी हास्यपूर्ण तो कभी भावुक मोड़ लेता है, और दोनों कलाकार बेहद नैचुरल अंदाज़ में अपने किरदारों को जीते हैं। कहा जा सकता है कि इनका हिस्सा फिल्म के बेस्ट हिस्सों में से एक है, जो ये संदेश देता है कि कभी-कभी प्यार को दूसरा मौका देने में खूबसूरती है । इसी तरह नीना गुप्ता और अनुपम खेर उम्रदराज़ पुराने दोस्तों के रूप में दिल छू जाते हैं। कॉलेज के ज़माने की यादें ताज़ा करने वाले उनके सीन्स में एक गर्मजोशी और मिठास है, जो दिखाती है कि ज़िंदगी की सांझ में भी नई रोशनी लाई जा सकती है । नीना जी को लंबे समय बाद इतना भरपूर रोल मिला है जिसमें वे चमकी हैं, हालांकि उनके ट्रैक का क्लाइमैक्स की ओर जाकर प्लॉट थोड़ा जटिल हो जाता है। फिर भी, अनुपम खेर के साथ उनकी केमिस्ट्री बड़ी सुखद लगती है और बुज़ुर्ग चरित्रों की कहानी में एक सम्मान और माधुर्य महसूस होता है।
युवा पीढ़ी के किरदारों में, सारा अली खान ने चुमकी (या ठुमरी) नाम की लड़की का रोल निभाया है जो दिल्ली में कॉर्पोरेट जॉब करती है और खुद को साबित करने व अपने रिश्तों के बीच संतुलन बनाने की कोशिश में है। सारा ने इस उलझनभरी 20-कुछ उम्र की लड़की के भीतर चल रहे भावनात्मक उतार-चढ़ाव को ईमानदारी से निभाया है। फिल्म की शुरुआत में उनका किरदार थोड़ा कन्फ्यूज़्ड और सहमा हुआ लगता है लेकिन धीरे-धीरे वो आत्मविश्वास पाती है – इस ग्रोथ को सारा ने बखूबी दर्शाया है । कई दर्शकों को सारा का यह अवतार काफी रिलेटेबल लगा, जो उनके अब तक के करियर में एक बेहतर परफॉर्मेंस के तौर पर देखा जा सकता है। आदित्य रॉय कपूर एक घुमक्कड़ ट्रैवल व्लॉगर के रूप में हैं, जिनका किरदार परथ ज़िंदगी को बेफिक्र अंदाज़ में जीना चाहता है। आदित्य अपने चिर-परिचित चार्म से प्रभावित करते हैं और सारा के साथ उनकी नई जोड़ी फ्रेश लगती है। हालांकि, कुछ दर्शकों को इन दोनों की प्रेम-कहानी बाकी कहानियों की तुलना में थोड़ी फीकी लगी – शायद इसलिए कि उनकी कहानी में जिन समस्याओं को दिखाया गया है (करियर vs कमिटमेंट के द्वंद्व) वैसा प्लॉट कई वेब सीरीज़ और फिल्मों में पहले भी दोहराया जा चुका है । फिर भी, आदित्य-सारा ने अपने-अपने रोल के साथ न्याय किया है और युवा दर्शकों को आकर्षित करने में सफल रहते हैं।
अली फ़ज़ल और फ़ातिमा सना शेख़ एक शादीशुदा जोड़े (आकाश और श्रुति) के रूप में नजर आते हैं, जिनके सपने और जिम्मेदारियों के बीच टकराव दिखाया गया है। अली एक संघर्षरत संगीतकार बने हैं और फ़ातिमा करियरवादी पत्रकार; दोनों अपने किरदारों में प्रमाणिक लगते हैं। लेकिन इनका ट्रैक कुछ जगह गहराई की कमी से जूझता है – इनकी कहानी में miscommunication और दूरियों का जो एंगल है, वह थोड़ा पारंपरिक और प्रेडिक्टेबल लगता है । शायद एक असफल म्यूज़ीशियन की कहानी को ज्यादा विस्तार चाहिए था ताकि वह प्रभावी बन पाती। फिर भी, अली और फ़ातिमा अपनी तरफ से अच्छा काम करते हैं, बस स्क्रिप्ट उन्हें उतनी उड़ान भरने नहीं देती। सपोर्टिंग कास्ट में शाश्वत चटर्जी (नीना गुप्ता के पति के रोल में) सीमित स्क्रीन टाइम में यादगार उपस्थिति दर्ज कराते हैं – खासकर उनके और पंकज त्रिपाठी के बीच कुछ दफ़ा आँखों ही आँखों में टकराने वाले दृश्य बड़े रोचक हैं। मन होता है कि इन दो उम्दा अभिनेताओं के बीच और दृश्य देखने को मिलते, पर कहानी की मांग के हिसाब से शायद जगह कम थी। इसके अलावा एक टीनएज लड़की की सब-प्लॉट है जो अपनी पहचान और सैक्शुअलिटी को एक्सप्लोर कर रही है – उस युवा कलाकार (कोंकणा-पंकज की ऑनस्क्रीन बेटी) ने भी बड़ी ख़ूबसूरती से अपने किरदार की मासूमियत और जिज्ञासा को पेश किया है। यह ट्रैक हल्के-फुल्के हास्य के साथ समलैंगिक पहचान जैसे विषय को बेहद स्वाभाविक अंदाज में छू जाता है, जो अनुराग बासु के सिग्नेचर टच जैसा लगा । कुल मिलाकर, इतना बड़ा एनसेंबल कास्ट होने के बावजूद हर प्रमुख कलाकार को चमकने का मौका मिला है। कुछ कहानियाँ भले एक-दूसरे से अधिक मजबूत हों, लेकिन सभी कलाकार अपने अभिनय से फिल्म को विश्वसनीय बनाते हैं।
एक मजेदार तथ्य यह है कि कोंकणा सेन शर्मा इकलौती अभिनेत्री हैं जो 2007 की ओरिजिनल ‘लाइफ़ इन अ… मेट्रो’ का भी हिस्सा थीं और इस नई फिल्म में भी दोहराई गई हैं (हालांकि किरदार अलग है)। बाकी लगभग सभी चेहरे नए हैं, तो फिल्म पूरी तरह फ्रेश लगती है।

Metro In Dino संगीत और तकनीकी पहलू
यदि आपने ‘Life in a… Metro’ देखी-सुनी है तो आपको पता होगा कि उसका संगीत कितना जबरदस्त हिट हुआ था – प्रीतम के कंपोज़ किए गाने आज भी प्लेलिस्ट में जगह बनाए हुए हैं, खासकर “इन दिनों” गीत तो क्लासिक बन चुका है। ‘मेट्रो… इन दिनों’ में फिर से प्रीतम ने संगीत दिया है और इस बार उन्होंने कुछ नया प्रयोग भी किया है। फिल्म में एक “Metro Band” का कॉन्सेप्ट है – प्रीतम खुद गायक पापोन और राघव छैतन्य के साथ मिलकर एक बैंड के रूप में पर्दे पर पूरी फिल्म के दौरान गाना गाते नजर आते हैं, जो कहानी के सूत्रधार की तरह काम करता है । यह ऐसा है मानो गाने फिल्म के नैरेटिव का हिस्सा हों और म्यूज़िकल इंटरल्यूड बनकर कहानियों को जोड़ रहे हों। इस प्रयोग से फिल्म को एक सोलफुल रिदम मिला है और लाइव कॉन्सर्ट सरीखा फील आता है। खासकर जब पापोन की मखमली आवाज़ में बैकग्राउंड में कोई गीत बजता है, तो सीन का इमोशन दुगुना हो जाता है। हाँ, एकाध जगह ऐसा भी लगा कि लगातार बैकग्राउंड में बैंड के दिखने से मुख्य अभिनेताओं के परफॉर्मेंस का इम्पैक्ट थोड़ा कम हुआ, लेकिन कुल मिलाकर संगीत फिल्म की आत्मा बना हुआ है।
गीत-संगीत की बात करें तो फिल्म का म्यूज़िक ऐल्बम रिलीज़ से पहले ही सुनने को मिल गया था। पहला गाना “ज़माना लगे” 28 मई 2025 को आया था, फिर रोमांटिक ट्रैक “दिल का क्या” 9 जून को रिलीज़ हुआ । इसी तरह “मन ये मेरा” (16 जून) और “और मोहब्बत कितनी करूं” (20 जून) जैसे गाने एक-एक कर आए । ये गाने यूट्यूब पर काफी ट्रेंड भी हुए – “ज़माना लगे” अपनी ताज़गी भरी धुन के लिए तारीफें बटोर रहा है और “दिल का क्या” को राघव की सुकूनभरी आवाज़ के लिए पसंद किया गया। फिल्म में ये गाने कहानी के प्रवाह में आते हैं और किरदारों की भावनाओं को आगे बढ़ाते हैं। मज़े की बात है कि अनुपम खेर और आदित्य रॉय कपूर दोनों ने ही ऐल्बम के लिए एक-एक गाना खुद गाया है यानी एक्टिंग के साथ गायिकी में भी हाथ आज़माया है, जो दर्शकों के लिए एक सरप्राइज़ पैकेज है।
सिनेमैटोग्राफी पर नज़र डालें तो अनुराग बासु ने खुद कैमरा विभाग में भी योगदान दिया है (उनका नाम सह-सिनेमैटोग्राफर के रूप में है) । फिल्म की शूटिंग असल लोकेशनों पर हुई है – दिल्ली की सड़कों से लेकर मुंबई की लोकल ट्रेनों तक, कोलकाता के कॉलेज कैंपस से हिमाचल की पहाड़ियों तक कई जगह नज़र आती हैं । इससे फिल्म को एक प्रामाणिक माहौल मिलता है। मुंबई की भागमभाग हो या दिल्ली की मेट्रो, बैंगलोर की आईटी दुनिया हो या कोलकाता की पुरानी गलियाँ – हर कहानी का लोकेशन किरदारों के मूड को दर्शाने में मदद करता है। कैमरा वर्क सधा हुआ है; कुछ वाइड शॉट्स बहुत खूबसूरत बने हैं, खासकर गोवा के समुद्र तट पर फिल्माए दृश्यों में छायांकन लाजवाब है (जी हाँ, कहानी पात्रों को गोवा तक भी ले जाती है एक मोड़ पर)। संपादन (एडिटिंग) भी सहज है, हालांकि फिल्म की लंबाई 159 मिनट है जो थोड़ी कम की जा सकती थी। पहला हाफ धीरे-धीरे किरदारों को स्थापित करने में लेता है, इसलिए कुछ दर्शकों को शुरुआती हिस्सा थोड़ा धीमा लगा । लेकिन सेकंड हाफ में इमोशनल पिक-अप होता है और कहानियाँ तेज़ी से आगे बढ़ती हैं। कुल मिलाकर तकनीकी पक्ष – सिनेमैटोग्राफी, एडिटिंग, प्रोडक्शन डिजाइन – सभी कहानी के अनुसार उचित हैं और फिल्म के मूड को सपोर्ट करते हैं।
एक और दिलचस्प तकनीकी/सिनेमाई पहलू है ट्रिब्यूट सीन – फिल्म के क्लाइमैक्स के करीब एक सीन में दिलवाले दुल्हनिया ले जाएँगे (DDLJ) के आइकॉनिक ट्रेनवाले सीन को हल्का-फुल्का सलाम किया गया है। हालांकि यह अचानक आया फिल्मी रिफरेंस कुछ लोगों को अनावश्यक या इंडलजेंट लग सकता है, मगर बॉलीवुड के प्रति प्यार रखने वालों के चेहरे पर मुस्कान भी ला सकता है। अनुराग बासु ने शायद ये नॉस्टैल्जिया का तड़का जानबूझकर डाला है – आखिर महानगर में फिल्में भी तो उतनी ही बड़ी सांस्कृतिक जुड़ाव का हिस्सा हैं, जितने हमारे रिश्ते।
Metro In Dino फिल्म के प्रमुख आकर्षण
फिल्म को कुछ पहलू खास बनाते हैं, जो इसे देखने लायक बनाते हैं:
- समसामयिक कहानियाँ और ईमानदार निर्देशन: ‘मेट्रो… इन दिनों’ आधुनिक ज़माने के रिश्तों की पेचीदगियों को संवेदनशीलता से दिखाती है। कार्यस्थल पर लैंगिक बराबरी, #MeToo, LGBTQ सब-प्लॉट जैसे विषयों को कहानी में बखूबी शामिल किया गया है, और अनुराग बासु का निर्देशन पूरी फिल्म में ईमानदार और सार्थक दिखता है ।
- शानदार ऐक्टिंग (एनसेंबल कास्ट): फिल्म की जान है इसके कलाकारों का मजबूत प्रदर्शन। खासतौर पर पंकज त्रिपाठी-कोंकणा सेन शर्मा और अनुपम खेर-नीना गुप्ता की कहानियाँ दिल छू लेती हैं और ये कलाकार अपने नेचुरल अभिनय से याद रह जाते हैं । युवा कलाकारों (सारा, आदित्य, अली, फ़ातिमा) ने भी आधुनिक किरदारों को विश्वसनीय ढंग से पेश किया है।
- भावुक और मधुर संगीत: प्रीतम का संगीत एक बार फिर कमाल करता है। बैकग्राउंड में चलते गाने कहानी को भावनात्मक गहराई देते हैं। “ज़माना लगे” और “दिल का क्या” जैसे गाने पहले से ही लोकप्रिय हो चुके हैं और फिल्म में सीन के साथ घुलमिलकर आते हैं। संगीत के जरिए कहानी में बहाव बना रहता है, और फिल्म खत्म होने के बाद भी कुछ धुनें आपके मन में गूँजती रहती हैं।
- रिश्तों पर सकारात्मक लेकिन वास्तविक नज़रिया: फिल्म की टोन काफी उम्मीद भरी और feel-good है, लेकिन यह हकीकत से दूर नहीं भागती। अकेलेपन, बेवफाई, काम और प्यार के बीच संतुलन जैसे मुद्दों को दिखाकर भी अंत में एक सकारात्मक संदेश देती है कि रिश्तों में उतार-चढ़ाव आ सकते हैं लेकिन कोशिश और ईमानदारी से दिल जीते जा सकते हैं। कई दृश्यों में हल्का-फुल्का हास्य और मज़ेदार डायलॉग भी हैं, जो भावुक पलों के बीच तड़का लगाते रहते हैं, ताकि फिल्म बोझिल न होने पाए।
कमियाँ जहाँ रह गईं
कोई भी फिल्म परफेक्ट नहीं होती, तो आइए नज़र डालें उन पहलुओं पर जहां ‘मेट्रो… इन दिनों’ थोड़ी कमजोर पड़ती है:
- लंबाई और गति: फिल्म की अवधि 2 घंटे 39 मिनट है, जो आजकल के हिसाब से लंबी मानी जाएगी। कई दर्शकों को लगा कि पहला हाफ थोड़ा धीमा है और काफी समय कहानियों की भूमिका बांधने में लगा देता है । कुछ प्लॉट पॉइंट दोहराव वाले महसूस होते हैं, जिससे टाइट एडिटिंग की कमी खलती है। यदि 15-20 मिनट की कतरब्योंत होती तो कहानी और टाइट हो सकती थी।
- कुछ कहानियों में गहराई की कमी: चार कहानियों को बैलेंस करना आसान नहीं होता। नतीजतन, दो सब-प्लॉट (खासतौर पर आदित्य-सारा और अली-फ़ातिमा वाले ट्रैक) उतने प्रभावशाली नहीं बन पाए जितने बाकी दो हैं। एक ट्विटर यूज़र ने तो सीधे कहा कि आदित्य-सारा की स्टोरी सबसे ब्लैंड लगी और वह वन-टाइम-वॉच टाइप है । इसी तरह अली-फ़ातिमा के म्यूज़िशियन कपल वाले ट्रैक में कुछ अनरिज़ॉल्व्ड से पहलू रह जाते हैं (जैसे श्रुति का करियर शिफ्ट या पार्थ के साथ गलतफ़हमी) जो क्लाइमैक्स तक पूरी तरह सुलझते नहीं दिखाई देते ।
- कभी-कभी टोन का असंतुलन: अधिकांश समय फिल्म का मूड सही संतुलन रखता है, लेकिन कहीं-कहीं अचानक बहुत फिल्मी हो जाती है। उदाहरण के लिए, क्लाइमैक्स के पास DDLJ वाले सीन की ट्रिब्यूट कुछ दर्शकों को ओवरइंडलजेंट लगी – लगा कि ये हिस्सा मेन स्टोरी से हटकर है। इसी तरह कुछ जगह मेट्रो बैंड का अति प्रयोग सीन का मूड भंग करता है। ये छोटी बातें हैं, लेकिन पैनी नजर वाले दर्शक इन्हें नोटिस कर सकते हैं।
- बॉक्स ऑफिस चुनौतियाँ: हालांकि यह रिव्यू पढ़ने वाले दर्शकों पर सीधा असर नहीं डालता, लेकिन नोट करने वाली बात है कि फिल्म ने बेहद धीमी ओपनिंग ली है – शुक्रवार दोपहर तक सिर्फ ₹1 करोड़ की कमाई कर पाई । उम्मीद है कि पॉज़िटिव वर्ड ऑफ़ माउथ से वीकेंड पर रफ्तार बढ़ेगी, पर साथ ही इस हफ्ते आमिर खान की बड़ी फिल्म ‘सितारे ज़मीन पर’ से टक्कर होने के कारण स्क्रीन शेयरिंग की चुनौती रहेगी । कमाई के लिहाज़ से फिल्म को संघर्ष करना पड़ सकता है, जिसका हल्का दबाव इसके नैरेटिव पर भी आ सकता है (जैसे अंतिम मिनट में डाले गए एलिमेंट्स दर्शकों को लुभाने की कोशिश की तरह लगना)।
निष्कर्ष
कुल मिलाकर, ‘मेट्रो… इन दिनों’ एक ऐसी फिल्म है जो दिल से बनी हुई महसूस होती है। यह 2007 की मूल फिल्म जितनी मजबूत भले न हो – आखिर ओरिजिनल ‘लाइफ़ इन अ… मेट्रो’ में कहानियाँ ज्यादा टाइट थीं, संगीत ऐतिहासिक था, और इरफ़ान जैसे करिश्माई अभिनेता की मौजूदगी थी – लेकिन नई फिल्म में भी अनुराग बासु ने वर्तमान पीढ़ी के हिसाब से ईमानदार कहानी कहने की कोशिश की है । आज के दौर में जब कई फ़िल्में दिखावे के लिए बनती हैं, ‘मेट्रो… इन दिनों’ उन चुनिंदा फिल्मों में से है जो भावनाओं की सच्चाई को पकड़ने की हिम्मत करती है। अगर आप हल्की-फुल्की हास्य के साथ भावुक रिश्तों की कहानियाँ पसंद करते हैं, या महानगरों में रहने वालों की ज़िंदगी की झलक बड़े परदे पर देखना चाहते हैं, तो यह फिल्म आपको निराश नहीं करेगी। ये एक संजीदा कोशिश है प्यार और जिंदगी को समझने की, जो आपको अपने कुछ रिश्तों की याद भी दिला सकती है और नए सिरे से सोचने पर मजबूर भी कर सकती है।
अंत में, सवाल आपसे – क्या आप इस मेट्रो में सफ़र करने के लिए तैयार हैं? आपकी नज़र में क्या यह सीक्वल वाकई इंतज़ार के लायक था? फिल्म देखकर अपनी राय हमें ज़रूर बताएं। कहीं न कहीं, ऐसी फ़िल्में ही हैं जो हमें महसूस कराती हैं कि ज़िंदगी की भागदौड़ में भावनाएँ अब भी उतनी ही ज़िंदा हैं। तो अगली बार जब आप मेट्रो में सफर करें, ज़रा आसपास निगाह डालिएगा – क्या पता, किसी कोने में आपको अपनी ही कहानी का कोई किरदार नज़र आ जाए!