क्या आपने कभी व्हाट्सऐप पर कोई ऐसा फॉरवर्ड पढ़ा है जिसमें बच्चा चुराने वाले गैंग की अफवाह हो? या फिर किसी निर्दोष को भीड़ द्वारा पीटे जाने की खबर? अगर हां, तो ‘Stolen’ जैसी फिल्म आपको अंदर तक हिला देगी।

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करण तेजपाल के निर्देशन में बनी यह डेब्यू फिल्म Stolen सिर्फ एक थ्रिलर नहीं है, बल्कि भारत के उस सामाजिक सच को उजागर करती है जो अक्सर शोर में दब जाता है। ‘Stolen’ आपको न सिर्फ एक कहानी दिखाती है, बल्कि आपको उसकी धड़कनें महसूस कराती है—बिना रुके, बिना समझाए, और बिना किसी चेतावनी के।
भीड़तंत्र, भय और बेगुनाही की कहानी
एक चुप्पी से शुरू होने वाला कोहराम
Stolen की शुरुआत एक शांत रेलवे प्लेटफॉर्म से होती है। एक मां, झुंपा (मिया मेल्ज़र), अपनी नन्हीं बच्ची चम्पा को गोद में लेकर बैठी है। कुछ मिनटों में ही यह सन्नाटा एक भयानक चीख में बदल जाता है। बच्चा किसी ने चुरा लिया है। और अगले ही पल, एक आम लड़का रमन (शुभम वर्धन), वहां पहुंचता है और गलती से उस बच्चे की टोपी उठा लेता है।
भीड़ जुटती है। शक की सुई सीधे रमन पर जाती है। और भारत जैसे देश में, खासकर ग्रामीण इलाकों में, शक अक्सर सबूत से ज्यादा शक्तिशाली होता है।
दो शहरवासी, एक अजनबी दुनिया में
रमन का भाई गौतम (अभिषेक बनर्जी), जो उसे लेने आया था, खुद को एक अनचाही लड़ाई में पाता है। एक साधारण से शादी के कार्यक्रम में जाने वाला दिन अब एक जटिल, भावनात्मक और खतरनाक रात में बदल जाता है।
ये दोनों भाई, जो शहरी और शिक्षित हैं, अचानक एक ऐसी दुनिया में फंस जाते हैं जो शक, जाति, वर्ग और गुस्से से संचालित होती है।
झुंपा: पीड़ा में लिपटी रहस्य की परतें
झुंपा की भूमिका में मिया मेल्ज़र बेहद प्रभावशाली हैं। शुरुआत में उनकी चीखें और दुःख आपको अंदर तक झकझोर देते हैं। लेकिन जैसे-जैसे कहानी बढ़ती है, आप खुद से पूछने लगते हैं—क्या वो सबकुछ सच बोल रही हैं?
उसकी बातों में एक अजीब सी अनिश्चितता है, जो दर्शकों को उलझा देती है। वह न्याय चाहती है, पर उसकी सच्चाई बदलती रहती है। यही परतें फिल्म को और भी मजबूत बनाती हैं।
सिनेमाई मजबूती और अभिनय का कमाल
अभिषेक बनर्जी का अब तक का सबसे बेहतरीन अभिनय
Stolen में गौतम के किरदार में अभिषेक बनर्जी एक दमदार परफॉर्मेंस देते हैं। ये वही अभिषेक हैं जिन्हें हम अक्सर हल्के-फुल्के रोल्स में देखते आए हैं। लेकिन यहां उनका किरदार गंभीर, सोचने वाला और गहराई से भरा हुआ है।
गौतम शुरुआत में आत्मकेंद्रित और डरपोक लगता है, लेकिन जैसे-जैसे हालात बिगड़ते हैं, वह एक मजबूत, निर्णयात्मक इंसान बनता है। और यह ट्रांसफॉर्मेशन आपको पूरी तरह विश्वास दिलाता है।
रियल टाइम थ्रिलर का नया आयाम
फिल्म एक रात की कहानी है, जो वास्तविक समय (real-time) में घटती है। इसमें न तो कोई लंबा फ्लैशबैक है, न ही कोई भारी-भरकम डायलॉग्स। जो कुछ भी है, वह आपकी आंखों के सामने घट रहा है—कभी गलियों में, कभी सुनसान सड़कों पर और कभी भीड़ के बीच।
पुलिस और व्यवस्था की नपुंसकता
फिल्म में पुलिस अधिकारी पंडितजी (हरीश खन्ना) कोई क्लासिक खलनायक नहीं हैं, लेकिन वे भरोसेमंद भी नहीं लगते। यह दिखाता है कि कैसे संस्थाएं अकसर ऐसे मामलों में असहाय हो जाती हैं, या फिर खुद ही हिंसा को बढ़ावा देने लगती हैं।
राजनीतिक और सामाजिक परतें, बिना उपदेश के
हकीकत से प्रेरित, लेकिन ड्रामा से दूर
‘Stolen’ असम में 2018 में हुई भीड़ हिंसा की एक सच्ची घटना से प्रेरित है, जब दो निर्दोष लोगों को बच्चा चुराने के शक में पीट-पीटकर मार दिया गया था। लेकिन फिल्म किसी डॉक्यूमेंट्री की तरह इसे पेश नहीं करती।
इसके बजाए यह एक ऐसी सिनेमाई भाषा में बात करती है जिसमें डर, चुप्पी, और अंधेरे गलियों का अपना असर होता है।
भीड़ का न्याय और वर्गभेद की खाई
फिल्म एक गहरा सवाल उठाती है: अगर आप “गलत समय पर गलत जगह” पर हों, तो क्या आपको भी दोषी मान लिया जाएगा? इसमें दिखाया गया है कि कैसे जाति, वर्ग और स्थान एक इंसान के दोषी या निर्दोष माने जाने को प्रभावित करते हैं।
महिला पीड़ा का शोषण या सहानुभूति?
Stolen यह भी दिखाती है कि कैसे महिलाओं की त्रासदी को कभी-कभी भीड़ का औजार बना दिया जाता है। झुंपा के चेहरे पर दिखने वाली पीड़ा के पीछे एक धुंध सी है—जो आपको सोचने पर मजबूर करती है कि हम कितनी जल्दी किसी पर विश्वास या संदेह कर लेते हैं।
फिल्म का प्रभाव: डर, सोच और उम्मीद
क्यों खास है ‘Stolen’?
यह फिल्म आपको दिखाती है कि भारत जैसे देश में व्यवस्था कितनी जल्दी टूट सकती है।
यह बिना शोर किए आपको देश के सामाजिक जख्म दिखाती है।
यह आपके मन में रह जाते सवाल छोड़ जाती है, न कि तैयार जवाब।
ना तो भावनाओं का व्यापार, न ही उपदेश
‘Stolen’ उन फिल्मों में से नहीं है जो दर्शकों के आंसुओं का फायदा उठाती हैं। यहां हर भावनात्मक दृश्य का एक मकसद है। यहां तक कि पीछा करने वाले सीन्स भी केवल थ्रिल नहीं देते, वे किरदारों की मानसिक और नैतिक यात्रा को आगे ले जाते हैं।
निष्कर्ष
Stolen सिर्फ एक फिल्म नहीं है—यह एक अनुभव है। यह डराती है, झकझोरती है, लेकिन सबसे अहम बात यह है कि यह सोचने पर मजबूर करती है।
करण तेजपाल का यह डेब्यू न सिर्फ मजबूत है, बल्कि यह दिखाता है कि भारतीय सिनेमा में राजनीतिक थ्रिलर की कितनी जरूरत है।
अगर आप ऐसी फिल्मों के शौकीन हैं जो सिर्फ एंटरटेन नहीं, बल्कि झकझोरें—तो Stolen आपके लिए एक ज़रूरी फिल्म है। इसे देखें, महसूस करें, और सोचें… कि जब व्यवस्था फेल हो जाती है, तो इंसानियत कहां खड़ी होती है?
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